Thursday, May 31, 2012

186 साल की हिंदीं पत्रकारिता


प्रमोद जोशी, वरिष्ठ पत्रकार


आज हिन्दी पत्रकारिता दिवस है। 186 साल हो गए। मुझे लगता है कि हिन्दी पत्रकार में अपने कर्म के प्रति जोश कम है। तमाम बातों पर ध्यान देने की ज़रूरत है। उदंत मार्तंड इसलिए बंद हुआ कि उसे चलाने लायक पैसे पं जुगल किशोर शुक्ल के पास नहीं थे। आज बहुत से लोग पैसा लगा रहे हैं। यह बड़ा कारोबार बन गया है। जो हिन्दी का क ख ग नहीं जानते वे हिन्दी में आ रहे हैं, पर मुझे लगता है कि कुछ खो गया है। क्या मैं गलत सोचता हूँ?

पिछले 186 साल में काफी चीजें बदलीं हैं। हिन्दी अखबारों के कारोबार में काफी तेज़ी आई है। साक्षरता बढ़ी है। पंचायत स्तर पर राजनैतिक चेतना बढ़ी है। साक्षरता बढ़ी है। इसके साथ-साथ विज्ञापन बढ़े हैं। हिन्दी के पाठक अपने अखबारों को पूरा समर्थन देते हैं। महंगा, कम पन्ने वाला और खराब कागज़ वाला अखबार भी वे खरीदते हैं। अंग्रेज़ी अखबार बेहतर कागज़ पर ज़्यादा पन्ने वाला और कम दाम का होता है। यह उसके कारोबारी मॉडल के कारण है। आज कोई हिन्दी में 48 पेज का अखबार एक रुपए में निकाले तो दिल्ली में टाइम्स ऑफ इंडिया का बाज़ा भी बज जाए, पर ऐसा नहीं होगा। इसकी वज़ह है मीडिया प्लानर।



कौन हैं ये मीडिया प्लानर? ये लोग माडिया में विज्ञापन का काम करते हैं, पर विज्ञापन देने के अलावा ये लोग मीडिया के कंटेंट को बदलने की सलाह भी देते हैं। चूंकि पैसे का इंतज़ाम ये लोग करते हैं, इसलिए इनकी सुनी भी जाती है। इसमें ग़लत कुछ नहीं। कोई भी कारोबार पैसे के बगैर नहीं चलता। पर सूचना के माध्यमों की अपनी कुछ ज़रूरतें भी होतीं हैं। उनकी सबसे बड़ी पूँजी उनकी साख है। यह साख ही पाठक पर प्रभाव डालती है। जब कोई पाठक या दर्शक अपने अखबार या चैनल पर भरोसा करने लगता है, तब वह उस वस्तु को खरीदने के बारे में सोचना शुरू करता है, जिसका विज्ञापन अखबार में होता है। विज्ञापन छापते वक्त भी अखबार ध्यान रखते हैं कि वह विज्ञापन जैसा लगे। सम्पादकीय विभाग विज्ञापन से अपनी दूरी रखते हैं। यह एक मान्य परम्परा है।




मार्केटिंग के महारथी अंग्रेज़ीदां भी हैं। वे अंग्रेज़ी अखबारों को बेहतर कारोबार देते हैं। इस वजह से अंग्रेज़ी के अखबार सामग्री संकलन पर ज्यादा पैसा खर्च कर सकते हैं। यह भी एक वात्याचक्र है। चूंकि अंग्रेजी का कारोबार भारतीय भाषाओं के कारोबार के दुगने से भी ज्यादा है, इसलिए उसे बैठने से रोकना भी है। हिन्दी के अखबार दुबले इसलिए नहीं हैं कि बाज़ार नहीं चाहता। ये महारथी एक मौके पर बाज़ार का बाजा बजाते हैं और दूसरे मौके पर मोनोपली यानी इज़ारेदारी बनाए रखने वाली हरकतें भी करते हैं। खुले बाज़ार का गाना गाते हैं और जब पत्रकार एक अखबार छोड़कर दूसरी जगह जाने लगे तो एंटी पोचिंग समझौते करने लगते हैं।



पिछले कुछ समय से अखबार इस मर्यादा रेखा की अनदेखी कर रहे हैं। टीवी के पास तो अपने मर्यादा मूल्य हैं ही नहीं। वे उन्हें बना भी नहीं रहे हैं। मीडिया को निष्पक्षता, निर्भीकता, वस्तुनिष्ठता और सत्यनिष्ठा जैसे कुछ मूल्यों से खुद को बाँधना चाहिए। ऐसा करने पर वह सनसनीखेज नहीं होता, दूसरों के व्यक्तिगत जीवन में नहीं झाँकेगा और तथ्यों को तोड़े-मरोड़ेगा नहीं। यह एक लम्बी सूची है। एकबार इस मर्यादा रेखा की अनदेखी होते ही हम दूसरी और गलतियाँ करने लगते हैं। हम उन विषयों को भूल जाते हैं जो हमारे दायरे में हैं।



मार्केटिंग का सिद्धांत है कि छा जाओ और किसी चीज़ को इस तरह पेश करो कि व्यक्ति ललचा जाए। ललचाना, लुभाना, सपने दिखाना मार्केटिंग का मंत्र है। जो नही है उसका सपना दिखाना। पत्रकारिता का मंत्र है, कोई कुछ छिपा रहा है तो उसे सामने लाना। यह मंत्र विज्ञापन के मंत्र के विपरीत है। विज्ञापन का मंत्र है, झूठ बात को सच बनाना। पत्रकारिता का लक्ष्य है सच को सामने लाना। इस दौर में सच पर झूठ हावी है। इसीलिए विज्ञापन लिखने वाले को खबर लिखने वाले से बेहतर पैसा मिलता है। उसकी बात ज्यादा सुनी जाती है। और बेहतर प्रतिभावान उसी दिशा में जाते हैं। आखिर उन्हे जीविका चलानी है।





अखबार अपने मूल्यों पर टिकें तो उतने मज़ेदार नहीं होंगे, जितने होना चाहते हैं। जैसे ही वे समस्याओं की तह पर जाएंगे उनमें संज़ीदगी आएगी। दुर्भाग्य है कि हिन्दी पत्रकार की ट्रेनिंग में कमी थी, बेहतर छात्र इंजीनियरी और मैनेजमेंट वगैरह पढ़ने चले जाते हैं। ऊपर से अखबारों के संचालकों के मन में अपनी पूँजी के रिटर्न की फिक्र है। वे भी संज़ीदा मसलों को नहीं समझते। यों जैसे भी थे, अखबारों के परम्परागत मैनेजर कुछ बातों को समझते थे। उन्हें हटाने की होड़ लगी। अब के मैनेजर अलग-अलग उद्योगों से आ रहे हैं। उन्हें पत्रकारिता के मूल्यों-मर्यादाओं का ऐहसास नहीं है।



अखबार शायद न रहें, पर पत्रकारिता रहेगी। सूचना की ज़रूरत हमेशा होगी। सूचना चटपटी चाट नहीं है। यह बात पूरे समाज को समझनी चाहिए। इस सूचना के सहारे हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी होती है। अक्सर वह स्वाद में बेमज़ा भी होती है। हमारे सामने चुनौती यह थी कि हम उसे सामान्य पाठक को समझाने लायक रोचक भी बनाते, पर वह हो नहीं सका। उसकी जगह कचरे का बॉम्बार्डमेंट शुरू हो गया। इसके अलावा एक तरह का पाखंड भी सामने आया है। हिन्दी के अखबार अपना प्रसार बढ़ाते वक्त दुनियाभर की बातें कहते हैं, पर अंदर अखबार बनाते वक्त कहते हैं, जो बिकेगा वहीं देंगे। चूंकि बिकने लायक सार्थक और दमदार चीज़ बनाने में मेहनत लगती है, समय लगता है। उसके लिए पर्याप्त अध्ययन की ज़रूरत भी होती है। वह हम करना नहीं चाहते। या कर नहीं पाते। चटनी बनाना आसान है। कम खर्च में स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन बनाना मुश्किल है।




चटपटी चीज़ें पेट खराब करतीं हैं। इसे हम समझते हैं, पर खाते वक्त भूल जाते हैं। हमारे मीडिया मे विस्फोट हो रहा है। उसपर ज़िम्मेदारी भारी है, पर वह इसपर ध्यान नहीं दे रहा। मैं वर्तमान के प्रति नकारात्मक नहीं सोचता और न वर्तमान पीढ़ी से मुझे शिकायत है, पर कुछ ज़रूरी बातों की अनदेखी से निराशा है। 

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Friday, December 16, 2011

सोशल मीडिया पर निगरानी बनाम साज़िश-ए-सरकार

पीयूष पांडे, साइबर पत्रकार

दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल ने सोशल मीडिया पर नकेल कसने के अपने इरादे जाहिर ही किए कि इंटरनेट पर उनके खिलाफ लोगों का गुस्सा फूट पड़ा। यह लाज़िमी था। लेकिन, सिब्बल के बयान के फौरन बाद अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन और संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने भी जिस तरह भारत पर निशाना साधा, वह चिंता का विषय है।

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार दिवस पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने भारत और कपिल सिब्बल का नाम लिए बगैर कहा कि वे दिन गए जब अहंकारी सरकारें सूचनाओं के प्रवाह को रोक सकती थीं। आज लोगों व संस्थाओं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए आलोचनाओं व सार्वजनिक बहस से बचने के लिए सरकार को इंटरनेट और सोशल मीडिया के तमाम मंचों पर रोक नहीं लगानी चाहिए। मून के बयान से महज दो दिन पहले अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने भी सोशल मीडिया पर पाबंदी लगाने की कथित कोशिशों को लेकर भारत पर निशाना साधा था। उन्होंने कहा था, जब विचारों को ब्लॉक किया जाता है, सूचनाओं को डिलीट किया जाता है,बातचीत को दबाया जाता है और लोगों को विकल्पों में सीमित किया जाता है तो इंटरनेट हम सभी के लिए कमजोर हो जाता है।

इंटरनेट पर आपत्तिजनक कंटेंट की भरमार होने के बावजूद कपिल सिब्बल की सोशल मीडिया पर पाबंदी की कथित कोशिशों को लेकर जबरदस्त हल्ला मचा है तो इसीलिए क्योंकि वह तर्कहीन हैं। सूचना तकनीक कानूनों को सख्त बनाए जाने के बाद आपत्तिजनक कंटेंट प्रसारित करने वाले के खिलाफ कार्रवाई संभव है। खास बात यह है कि इस मुद्दे पर अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र ने भारत को आइना दिखाने की कोशिश की है, लेकिन वे भूल गए कि पहले उन्हें अपने घर में झांकने की जरुरत है। कम से कम अमेरिका को। विकीलीक्स का उदाहरण हमारे सामने है, जिसे अमेरिका पूरी रणनीति के साथ बंद करने में लगा है। अमेरिका ने विकीलीक्स को आर्थिक मदद प्राप्त करने में सहायता करने वाली वीजा, मास्टरकार्ड आदि कंपनियों को साइट से संबंध तोड़ने के लिए बाध्य किया। ट्विटर पर विकीलीक्स से जुड़े लिंक्स की प्राथमिकता को कम कराया। सूचनाओं के मुक्त प्रवाह की हिमायती हिलेरी क्लिंटन के विदेश मंत्रालय ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर काम करने वाले छात्रों को चेताया कि वे विकीलीक्स के केबल को न तो पढ़ें, न लिंक करें और न ही उन पर चर्चा करें। व्हाइट हाउस ने सरकारी कर्मचारियों को चेताया कि विकीलीक्स द्वारा लीक केबल अभी भी गोपनीय दस्तावेज की श्रेणी में हैं और तमाम अखबारों के प्रकाशित करने के बावजूद वे उन्हें न देखें वरना इसे कानून का उल्लंघन माना जाएगा। इसके बाद ओबामा प्रशासन ने लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस समेत कई संस्थानों में इन दस्तावेजों को ब्लॉक कर दिया। विकीलीक्स प्रकरण के बाद ओबामा प्रशासन एक नए संघीय कानून पर काम कर रहा है, जिसके तहत ई-मेल, इंस्टेंट मैसेजिंग और दूसरे संचार तकनीक प्रदानकर्ताओं को कानूनी एजेंसियों के चाहने मात्र से सारा डाटा दिखाना होगा। उन्हें एक साल तक अपने ग्राहकों का सारा डाटा सुरक्षित रखना होगा।

इसी तरह संयुक्त राष्ट्र को भी देखना होगा कि अभी 40 से ज्यादा देशों में इंटरनेट पर किसी न किसी तरह की पाबंदी है और वहां सूचनाओं को फिल्टर किया जाता है। क्यूबा, थाइलैंड,इरान,उत्तर कोरिया जैसे देशों में इंटरनेट सेंसरशिप का हाल यह है कि सामान्य जन लिखने से पहल कई बार सोचता है कि कहीं उसका लिखा उसे जेल न पहुंचा दे। चीन में तो यूट्यूब, फेसबुक, ट्विटर जैसी साइटों पर पूर्ण पाबंदी है ही, और चीन की अपनी एक अलग अदद इंटरनेट दुनिया है।

अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र पहले इन देशों को इंटरनेट सेंसरशिप से मुक्त कराएं, फिर भारत के बारे में बयानबाजी करें। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में लोगों की आवाज को दबाना मुश्किल है। प्रख्यात पत्रकार एमजे अकबर ने अपने एक लेख में कहा भी, चाय की दुकानों पर आप सेंसरशिप कैसे लगाओगे?

दरअसल, भारत में अभिव्यक्ति की मुखरता के बीच सेंसरशिप की आहट भी लोगों को न केवल बेचैन कर देती है बल्कि उनके क्रोधित भी कर डालती है। जहां तक भारत का सवाल है तो सिब्बल ने सही समस्या का गलत तरीके समाधान निकालने की कोशिश की। सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक कंटेंट की भरमार है। आपत्तिजनकसामग्री भी सापेक्षिक है यानी कोई सामग्री अगर भारत में आपत्तिजनक कंटेंट की श्रेणी में है तो आवश्यक नहीं कि वो अमेरिका में आपत्तिजनक कंटेंट कहलाए। सोशल नेटवर्किंग साइट्स का भी तर्क है कि वे अमेरिकी कानूनों का पालन करने के लिए बाध्य हैं, न कि भारतीय कानूनों का। सोशल नेटवर्किंग साइट्स कंपनियों के मुताबिक कपिल सिब्बल चाहते थे कि भारतीय उपयोक्ताओं के कंटेंट को सार्वजनिक करने से पूर्व पूर्वपरीक्षण की कोई प्रणाली विकसित की जाए। तकनीकी रुप से यह आसान नहीं है। भारत में अभी फेसबुक के करीब चार करोड़ बीस लाख ज्यादा उपयोक्ता हैं तो उनके कंटेंट को मॉडरेट करना लगभग नामुमकिन है। भारत के संदर्भ में यह मांग मानी जाती तो जल्द अन्य देशों की सरकारों की तरफ से भी इस तरह की मांग उठती। दरअसल, सिब्बल के इरादे इंटरनेट सेंसरशिप की तरफ ले जाते हैं, जिसे किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। इस दौरान जस्टिस काटजू जैसी हस्तियां इस मामले को और हवा देती हैं। लेकिन,उन्हें यह समझ लेना होगा कि भारत में इंटरनेट पर पूर्ण पाबंदी संभव नहीं है। अलबत्ता इसका उल्टा असर यानी स्ट्रीजएंड अफेक्ट जरुर राजनेताओं को देखने को मिल सकता है, जहां लोग छद्म प्रोफाइल से, विदेशों में बसे अपने मित्रों की मदद से और सोशल नेटवर्किंग की सबसे बड़ी ताकत यानी एक लाइक या शेयर के जरिए बात का प्रचार कर सरकार की ऐसी-तैसी करने में जुट सकते हैं।

वैसे, यह भी अजीब संयोग है कि कपिल सिब्बल ने सोशल मीडिया पर नकेल कसने का इरादा उस वक्त जाहिर किया है, जिस वक्त समाजसेवी अन्ना हजारे फिर सशक्त लोकपाल के मसले पर आंदोलन करने को तैयार दिख रहे हैं। सरकार महंगाई को लेकर कठघरे में है और उसका हर दांव उसी पर भारी पड़ रहा है। सरकार विरोधी माहौल सोशल मीडिया पर तेजी से तैयार होता है, और इसका अंदाज सरकार को अन्ना आंदोलन के पहले चरण से है। सरकार खुद मान चुकी है कि उसे इस बात का इल्म नहीं था कि सोशल मीडिया पर सरकार के खिलाफ गुस्सा पनप रहा था। वह इसे भांपने में नाकाम रही।

दरअसल,सोशल मीडिया से जुड़ी समस्याओं को दरकिनार नहीं किया जा सकता। आपत्तिजनक कंटेंट भी इनमें से एक बड़ी समस्या है। लेकिन, इसका हल सोशल मीडिया पर किसी भी तरह की पाबंदी के रुप में नहीं खोजा जा सकता। इंटरनेट पर एक नयी संस्कृति विकसित हुई है। पूरी दुनिया में। संस्कृति एक पैकेज की शक्ल में आती है, जिसे कई सकारात्मक पहलू होते हैं तो कुछ नकारात्मक भी। तो जरुरी यह है कि इंटरनेट और सोशल मीडिया पर पसरी समस्याओं को हल सार्थक तरीके से खोजने की कोशिश की जाए। लोगों को इन समस्याओं का हल खोजने में भागीदार बनाया जाए।

Sunday, April 12, 2009

जब चार्जर खो जाता है ।

जब चार्जर खो जाता है ।
चार्जर , एक ऐसी चीज जों मोबाइल से भी ज्यादा जरुरी है ये तब मालुम होता है । जब मोबाइल चार्ज नहीं होता । और ठीक भी है , किसी की अनुपस्थित में ही उसकी जरुरत का अहसास होता है । वैसे तो ये चार्जर इधर-उधर लुढकते रहते है लेकिन ये जरुरत के समय नदारत हो जाते है । लेकिन , इसमें गलती भी तो हमारे जैसे आम इंन्सान की ही है । आखिर हम इनसे लावारिसों जैसा सलूक करते ही क्यों है । खैर अपनी आदतों को बदल भी तो नहीं सकते । शिशिर शुक्ला

भारी पडेगा सिक्कों से तुलवाना

भारी पडेगा सिक्कों से तुलवाना
· चुनाव आयोग और आयकर विभाग की कड़ी नजर
· तौलने और तुलवाने वालों को देना होगा जवाब
शिशिर शुक्ला -चुनाव आयोग की कडी़ निगरानी से अधिक्कतर प्रत्याशी परेशान हैं । चुनाव में प्रत्याशियो़ को सिक्कों से तौलने की एक खास परम्परा है । मगर, इस बार सिक्को से तौलने और तुलवाने वालों पर चुनाव आयोग और आयकर विभाग नजर
गडाए हुए है । उम्मीदवारो को सिक्को के बदले प्राप्त रकम का हिसाब देना होगा । वहीं सिक्कों से तौलने वाले संगठनों को भी पैसे के एकत्र होने का ब्यौरा देना होगा ।
उल्लेखनीय है कि चुनाव के समय उम्मीदवारों को जनसमर्थन के नाम पर नागरिकों व्दारा चुनावी खर्च के लिए आर्थिक मदद के रुप मे सिक्कों से तौला जाता है । बाद मे सिक्कों के बदलें रुपयों की गड्डी दे दी जाती हैं । सिक्कों की एक ही बोरी से अलग – अलग क्षेत्रो के प्रत्याशी तौलें जातें हैं इससे प्रत्याशियो को जनसमर्थन के नाम पर लाखों रुपये हासिल होते है ।
चुनाव मे नोट और वोट का चली आ रही परंपरा पर रोक लगाने के लिए चुनाव आयोग ने निर्देश दिया हैं । कि अब प्रत्याशी यह भी बताएँ कि प्रचार के दौरान उसे कितनी बार किन – किन इलाकों मे सिक्कों से तौला गया है । साथ ही उससे कितनी
राशि प्राप्त हुई है । उधर, सिक्कों से तौलने वाले संगठनों को भी धन संग्रह का
ब्यौरा देना होगा । चुनाव आयोग ने निर्देश के बाद आयकर विभाग को नोटिस जारी
करके चुनावी खर्चे का आकलन करने को कहा है । चुनाव आयोग के निर्देश के बाद
आयकर विभाग ने भी सभी प्रत्याशियों एवं दलों को नोटिस भेजा है । दिल्ली चुनाव कार्यालय की मुरुय चुनाव अधिकारी एसएस बेदी ने कहा कि चुनाव मे काले धन के इस
गदें खेल पर रोक लगाना जरुरी था ।

बरेलवी मुसलमानों में बढती छटपटाहट

Tuesday, February 24, 2009

दिल्ली में बाइकर्स गैंग के दो सदस्य गिरफ्तार


दिल्ली में बाइकर्स गैंग के दो सदस्य गिरफ्तार

दिल्ली में बाइकर्स गैंग के दो सदस्य गिरफ्तार
राजधानी दिल्ली में बाइकर्स गैंग के दो सदस्यों को पुलिस ने बाहरी दिल्ली से गिरफ्तार कर लिया । ये गिरोह आये दिन झपटमारी की वारदातों को अंजाम दे रहा था । वारदात में असफल होने पर हत्या से भी परहेज नहीं करते थे। पुलिस ने दावा किया है कि गिरोह के अन्य सदस्यों की गिरफ्तारी जल्द ही होगी । पुलिस से मिली जानकारी के अनुसार बादमाशों के नाम राजू उर्फ छत्रपाल और अजय रावत शामिल हैं। छह फरवरी रात को फैक्टरी से काम करके वापस आते राम प्रसाद और सुनील को कुछ बदमाशों ने घेर लिया और लूटपाट की । राम प्रसाद ने इसका विरोध किया तो बदमाशों ने उसे चाकू मारकर मौत के घाट उतार दिया था। जबकि सुनील से बदमाशों ने एक हजार रुपये छिन कर फरार हो गये थे । पुलिस के मुताबिक इनकी गिरफ्तारी से लूट व हत्या समेत कई मामले सुलझ गये है ।